Not known Facts About कोकिला-व्रत-कथा

शिवजी की पूजा में सफेद और लाल पुष्‍प के अलावा बेलपत्र, भांग, धतूरा, दूर्वा, अष्‍टगंध, धूप और दीपक रखें। इन सभी वस्‍तुओं से पूजा करने के बाद व्रत का संकल्‍प लें। आप चाहें तो निराहार व्रत रहें और समार्थ्‍य नहीं है तो फलाहार करके भी व्रत रहा जा सकता है।

कोकिला व्रत से जुड़ी कथा का संबंध भगवान शिव एवं माता सती से जुड़ा है। माता सती ने भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए लम्बे समय तक कठोर तपस्या को करके उन्हें पाया था। कोकिला व्रत कथा का वर्णन शिव पुराण में मिलता है। इस कथा के अनुसार देवी सती ने भगवान को अपने जीवन साथी के रुप में पाया। इस व्रत का प्रारम्भ माता पार्वती के पूर्व जन्म अर्थात सती रुप से है।

आप चाहें तो निराहार रहकर इस व्रत को कर सकते हैं। अगर समर्थ नहीं हो तो आप एक समय फलाहार कर सकते हैं।

यह जन्म से ब्राह्मण लेकिन कर्म से असुर था और अरब के पास यवन देश में रहता था। पुराणों में इसे म्लेच्छों का प्रमुख कहा गया है।

भगवान शिव को जब सती के बारे में पता चलता है तो वह यज्ञ को नष्ट कर, दक्ष के अहंकार का नाश करते हैं। सती की जिद्द के कारण प्रजापति के यज्ञ में शामिल होने तथा उनकी आज्ञा न मानने के कारण वह देवी सती को भी श्राप देते हैं, कि हजारों सालों तक कोयल बनकर नंदन वन में घूमती रहें।

ऐसे में जब देवी सती को इस बात का पता चलता है कि उनके पिता दक्ष ने सभी को बुलाया लेकिन अपनी पुत्री को नहीं। तब सती से यह बात सहन न हो पाई। सती ने शिव से आज्ञा मांगी कि वे भी अपने पिता के यज्ञ में जाना चाहतीं हैं। शिव ने सती से कहा कि बिना बुलाए जाना उचित नहीं होगा, फिर चाहें वह उनके पिता का घर ही क्यों न हो।

अब आप कृपा करके मुझे भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के विषय में भी बतलाइये। इस एकादशी का क्या नाम है तथा इसके व्रत का क्या विधान है?

व्रत रखने वाले व्‍यक्ति को इस दिन कोकिला व्रत की व्रत कथा जरूर पढ़नी चाहिए।

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व्रत करने वाले को सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्‍नान करना चाहिए। इस दिन गंगा स्‍नान करें तो सबसे अच्‍छा होता है।

पूर्णिमा के दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर साफ वस्त्र धारण करें।

वह शिव से हठ करके दक्ष के यज्ञ पर जाकर पाती हैं, कि उनके पिता ने उन्हें पूर्ण रुप से तिरस्कृत किया है। दक्ष केवल सती का ही नही अपितु भगवान शिव का भी अनादर करते हैं उन्हें अपशब्द कहते हैं। सती अपने पति के इस अपमान को सह नही पाती हैं और उसी यज्ञ की अग्नि में check here कूद जाती हैं। सती अपनी देह का त्याग कर देती हैं।

इस व्रत को निष्ठा और श्रद्धा के साथ करने से अधिक लाभ प्राप्त होता है।

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